कम लागत, समय और श्रम पर लाखों रुपए का मुनाफा कमाने का विचार कर रहे हैं तो कालमेघ की खेती की ओर बढ़ें। यह एक औषधीय पौधा है। यह किसान भाइयों के स्वास्थ्य बनाए रखने के साथ अच्छा कमाई का साधन है। दरअसल अब किसान पारंपरिक खेती से हटकर नई फसलों पर हाथ आजमा रहे हैं। इससे किसान व्यापारिक स्तर पर अपनी पहचान बना रहे हैं।
विदेशों में भारत में पाए जाने वाले औषधीय पौधों की मांग बढ़ी है। इसी मांग के चलते किसानों ने औषधीय पौधों की फसल करना शुरू कर दिया है। जिसमें कालमेघ मुख्य फसलों में से एक है। कालमेघ को चिरायता के नाम से भी पहचाना जाता है। इसमें क्षारीय तत्व-एन्ड्रोग्राफोलाइडस पाया जाता है। रक्त शुद्धिकरण के लिए कालमेघ का प्रयोग बड़े स्तर पर किया जाता है। भारत में पहले से ही कालमेघ की खेती बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में व्यापक स्तर जा रही है। अब यह खेती व्यवसायिक रूप ले रही है। जिसके बाद अन्य राज्यों के किसान भी इसमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
कैसा होता है कालमेघ
यह पौधा छोटे नीम की तरह होता है। इस पेड़ का तना सीधा होता है जिसमें चार शाखाएँ निकलती हैं। पेड़ की प्रत्येक शाखा फिर चार शाखाओं में फूटती हैं। इस पौधे की पत्तियाँ नीम की तरह हरी होती हैं। इस पर फूल भी आता है, जिसका रंग गुलाबी होता है। इसके पौधे को बीज द्वारा या पौध लगाकर उगाया जाता है। मई जून में बोने के बाद पौधे की छंटाई फूल आने की अवस्था अगस्त-नवम्बर में की जाती है। इसके बाद फरवरी-मार्च में पौधों की कटाई करते है। पौधों को काटने के बाद पत्तों ओर टहनियों को सुखाकर बेचते हैं।
खेती के लिए क्या है जरूरी
कालमेघ के लिए किसी मिट्टी विशेष की जरूरत नहीं होती है। हालांकि इसके लिए सड़ी हुई गोबर की खाद जरूरी है। एसे क्षेत्र जहां वार्षिक वर्षा 500 मि.मी. से 1400 मि.मी. तक होती है वहां यह अच्छी मात्रा में उगाया जाता है। न्यूनतम तापमान 5˚C से 15˚C व अधिकतम तापमान न 35˚C से 45˚C तक हाेना भी लाभदायक है। इस फसल को मेड़ और समतल दोनों ही तरह की जमीन पर आसानी से किया जा सकता है। मेड़ पर पौधों को 40 X 20 सेमी की दूरी पर लगाना सही होता है। सबसे अच्छी बात है कि इस पौधे को बारिश के दिनों में सिंचाई की जरूरत ही नहीं होती है। किसान बड़ी संख्या में इसे उगा रहे हैं।
इन बीमारियों को ठीक करने में आता काम
कालमेघ का प्रयोग औषधी के तौर पर किया जाता है। आयुर्वेदिक के साथ होम्योपैथिक और एलोपैथिक दवाइयों में भी इसका प्रयोग किया जा रहा है। विदेशों में भी इसकी मांग है। इसका प्रयोग पेट संबंधी दिक्कतों में अधिक किया जाता है। यह यकृत विकारों को बहुत जल्दी दूर कर देता है। इसके साथ ही मलेरिया, ब्रोंकाइटिस रोगो में किया जाता है। इसकी जड़ का उपयोग भूख लगने वाली औषधि के रूप में भी होता है। पेट में गैस, अपच आदि को दूर करता है। खून साफ करने, बुखार और स्किन डिजीज को भी ठीक करता है।
इतनी मात्रा में होती है पैदावार
कालमेघ की सालभर में दो बार कटाई की जाती है। फूल लगना शुरू होने के साथ ही इसकी पहली कटाई कर दी जाती है। इसे जमीन से 10 से 15 से.मी. ऊपर से काटा जाता है। इसके बाद तुरंत सिंचाई की जाती है। पौधों को सुखाया जाता है। इन पत्तों को ही आगे बेचा जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार प्रति हेक्टेयर औसतन 300-400 शाकीय हरा भाग (40-60 किलोग्राम सूखा शाकीय भाग) प्रति हेक्टेयर मिल जाती है। फसल को कटाई के तुरंत बाद हवादार जगह में सुखाते हैं। फसल अच्छी तरह सूखने के बाद इसे बेचने की प्रक्रिया शुरू होती है।