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मां का वात्सल्य सबसे अमूल्य माना गया है। इसे शब्दों में पिरोना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है। आज मां की दसवीं पुण्यतिथि पर उनकी यादें ताज़ा हो गई हैं। मेरी मां का जन्म जहाँनिया क़स्बे में हुआ था जो कि अब पाकिस्तान में है। जब माँ 6-7 साल की थी तो उनके पिता का देहांत हो गया। उस समय उनका छोटा भाई तीन वर्ष का था। मेरी नानी ने बड़ी कठिन परिस्थितियों में दोनों बच्चों का लालन-पालन किया। 13 वर्ष की आयु में माता  का विवाह दूर के रिश्ते में एक संपन्न परिवार में हुआ।
भारत विभाजन के समय हम तीन भाई बहन थे। मेरे से छोटी बहन का जन्म अमृतसर में विस्थापितों के कैम्प में हुआ। मैं उस समय तीन वर्ष का था। तीन भाई बहन बाद में पैदा हुए। बाद में मेरे माता पिता हरियाणा के हिसार ज़िले के बास गांव में आकर बस गए। उस समय गांव में भौतिक सुविधाएं नाममात्र की थी। बड़ा कठिन समय था। मेरी मां सुबह जल्दी उठकर सारे घर के काम काज करती- जैसे आंगन में झाड़ू लगाना, गोबर थापना, सात बहन – भाइयों का नाश्ता तैयार करना, नहा – धोकर शिवालय में जल चढ़ाकर आना, दूर कुएं से पानी भर कर लाना, गांव की महिलाओं के लिए कपड़े सीना, दोपहर का खाना बनाना आदि। वह सारा दिन काम में व्यस्त रहती थी। दिवाली के समय खेतों में कपास चुगने जाना । शाम को 5 बजे के क़रीब मोहल्ले की महिलाएँ हमारे घर पर आती थी , वह उस समय हनुमान चालीसा पढ़ती एवम् भजन बोलती। हम केवल उसी समय ही उन्हें आराम से बैठा देखते थे।

सहज और शांत स्वभाव का गुण

मेरी मां सरल सहज एवं शांत स्वभाव की थी। वह शरीर से हल्की- फुल्की और अपने समय में सौंदर्य से भरपूर थी। वह कभी स्कूल नहीं गई पर उन्होंने ने गुरमुखी पढ़नी सीख ली। वह सुखमनी और गीता पढ़ लेती थी। चाहे वह पढ़ी लिखी नहीं थी परंतु उन्हें व्यवहारिक ज्ञान बहुत था। वह गुणी , मंजी एवं सुलझी हुई महिला थी ।
बच्चों की शिक्षा के प्रति वह कटिबद्ध थी।वैसे तो माँ सब बच्चों का ध्यान रखती थी, पर मेरे से विशेष स्नेह था उनका। जब मैं चौथी- पाँचवी कक्षा में था, उस समय दुकान पर चोरी करने के आरोप में मेरी मां ने पहली और अंतिम बार मुझे बुरी तरह डांटा एवं पीटा था। उस घटना से मेरे जीवन के मायने बदल गए। गांव में आठवीं तक का स्कूल था। मेरे माता- पिता ने मुझे आगे पढ़ने के लिए मेरे चचेरे भाई के साथ अमृतसर भेज दिया। मेरे तीन साल के प्रवास में वह एक बार अकेले मुझे अकेले मिलने आई थी ।
मेरी मां एक विदेही स्त्री थी। वह मोह- माया में लिप्त नहीं थी । वह हर काम अपना कर्तव्य समझ कर करती थी। उनका हृदय उदार था । घर की आर्थिक स्थिति अच्छी ना होते हुए भी दीन – दुःखियों की सहायता करना उन्हें अच्छा लगता था। वह मुझे अक्सर कहा करती थी कि देने से कभी कुछ कम नहीं होता, सब को अपने भाग्य का मिलता है। वह कहा करती थी कि प्रतिदिन कोई अच्छा काम किया करो- जैसे किसी भिखारी को रोटी देना, गाय – कुत्ते को रोटी डालना, अपने से पढ़ाई में कमज़ोर बच्चे को पढ़ाना, अंधे को सड़क पार करवाना, किसी का पत्र लिख देना आदि। यह छोटी छोटी शिक्षाएँ मुझे जीवन में बहुत काम आई और मैंने अपने जीवन ढालने का प्रयास किया और और अब भी करता रहता हूँ ।

करुणा और दया की मूर्ति

माता जी अपने नाम दया वन्ती के अनुरूप करुणा और दया की मूर्ति थी । मेरी माँ संयम एवं सहिष्णुता का अवतार थी । 1972- में जब वह 53-54साल की थी , हमारे पिताजी हमें छोड़कर हमेशा के लिए चले गए। उनके बाद 41 – साल बच्चों को उनकी सेवा करने का अवसर मिला। वह बच्चों के साथ खुश रहते थे। हमने उनके चहेरे पर कभी शिकन नहीं देखी। वह कमाल की मां थी । अधिकतर समय ईश्वर भक्ति , पाठ – पूजा में व्यतीत करते थे । सुबह शाम घंटों अपने इष्ट देव के सामने बैठ कर ध्यान में लगी रहती थी । उन्हें घर की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी । वह निर्भीक भी थी । मेरा छोटा भाई ऑस्ट्रेलिया में रहता है । वह एक बार माता जी को अपने साथ ऑस्ट्रेलिया ले गया । माता जी 82 -साल की उम्र में अकेली वहाँ से वापस आ गई । जब हम उनसे पूछते कि ऑस्ट्रेलिया कैसा था तो वह कहते जैसी भौं ( धरती) यहाँ , वैसी वहाँ – एक जैसी हैं । सिर्फ़ वहाँ सफ़ाई ज़्यादा है । जब कोई मेहमान या दोस्त मिलने आते हैं तो वह मिठाई या फल नहीं लाते, वह बोतल ( व्हिस्की) ले कर आते हैं , जो उन्हे भारतीय संस्कृति के अनुसार अच्छा नहीं लगता था। 

बच्चों को जीवन जीना सिखाया

वह दुःख – सुख में सम रहते थे। वह कहते थे सुख – दुःख जीवन का अभिन्न अंग हैं। आते – जाते रहते हैं , घबराना नहीं चाहिए। माताजी गुणों से भरपूर थे। उन्होंने बच्चों को जीवन जीना सिखाया। बच्चों को अच्छे संस्कार दिए । बढ़िया शिक्षा दी। परिवार को कैसे जोड़ कर रखना है, उन्होंने हमें सिखाया। वह कहते थे किसी की कमियाँ ढूँढने का प्रयास मत करो, उनके गुणों को देखो और उन्हें जीवन में ढालने की कौशिश करो।
आज उनका पूरा परिवार सब तरह से संपन्न और अच्छी तरह से व्यवस्थित है। सब अपने – अपने क्षेत्रों में उन्नति कर रहे हैं। जीवन के अंतिम दिनों में भी अपना काम स्वयं करते थे और आत्मनिर्भर थे।
मैंने अपने जीवन में उनसे बहुत कुछ सीखा एवं अनुसरण करने की कौशिश भी की । आज हम सब जो कुछ भी हैं- यह सब उनके आशीर्वाद और मार्गदर्शन का फल है। ऐसा लगता है कि वह आज भी हमें अपना आशीर्वाद दे रही हैं।
आज ही के दिन 12-अगस्त 2013 को 95-वर्ष की आयु में चलते – फिरते, अपने इष्टदेव को देखते और निहारते हुए अपने स्थूल शरीर को छोड़ कर प्रभु चरणों में विलीन हो गए। छोड़ गए अपनी यादें , प्यार और जीवन जीने की कला।

लेखन:-


डाॅ. जे . के. डांग
प्रोफेसर ( सेवा सेवानिवृत्त )
हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय,
हिसार

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