सामने बैठी एक छोटी सी लड़की को देखकर मेरे मन में एक विचार आया। कितनी चहक रही थी वो अपनी पापा की गोदी में। मैं उसी लड़की के बारे में सोचती रही कि क्या भाग्य है लड़कियों का ? जहां जन्म लेगीं, खेलेगी, खुशियां बिखेरेंगी, वहीं घर पल में पराया हो जाता है। ये विचार जो मेरे अंदर चल रहा था वो शुन्य नहीं अंतहीन था। वैसे भी विचार तो चलते रहते है छोर कहां मिलता है विचारों को। मेरे साथ भी यहीं हुआ मेरे विचारों का ना सिर था ना पैर। बस दिमाग के समुंद्र में तैरते ही जा रहे थे, किनारा नहीं मिल रहा था विचारों को।
बेटियों का बचपन बीत जाता है जल्दी
बेटियों का बचपन कितना जल्दी बीत जाता है पता भी नहीं चलता। मां के आंचल में, भाई से लड़ाई में, दादी की कहानियां सुनते-सुनते पापा की गुड़िया उम्र का एक पड़ाव कब पार कर जाती है पता ही नहीं चलता। खबर तो तब होती है, जब मम्मी घर से अकेली बाहर नहीं जाने देती, दादी कहानी सुनाने की बजाए अब टोकती हैं, कभी दुपट्टे को लेकर, तो कभी चोटी को लेकर, भाई छोटा है उम्र में पर जाने क्यों आजकल बड़ा बनकर घुम रहा है, पापा भी अब यहीं कहते हैं गुड़िया सयानी हो गई है, और तो और हर पल पड़ोसियों की निगरानी में भी आ जाती है।
ये भी है जरुरी- बेटी के खुले बाल होने पर गर्मी मम्मी को क्यों लगती है!
पति के हाथ में सौंप देते हैं सपनों की डोरी
सपने लेने की जो उम्र होती है उसमें शादी के बंधन में बांध दिया जाता है यहीं कहकर की आगे ससुराल वालों को जरुरत होगी तो वो पढ़ा देगें । बेटियां मान भी जाती है क्योंकि उसे पता है सपने देखने के अधिकार उसे नहीं है, वो जानती है ये समाज पुरुष प्रधान है सपना देख भी लेगी तो डोरी पुरूषों के हाथ में होगी औऱ इस डोरी को छुड़ाने की कोशिश भी करेगी तो सवाल चरित्र पर उठेगा।
ये भी पढ़े-वॉट्सऐप पर पीरियड ट्रैकर बना सेहत का अलार्म, ट्रैकर एप पर लड़कियां रख रहीं माहवारी का रिकॉर्ड
समाज को समझने की है जरुरत
बहुत बार माता-पिता अपनी बेटियों को खुलकर जीने का अधिकार नहीं देते। उनका मानना होता है कि ज्यादा पढ़ने से, बाहर जाने से, सुंदर कपड़े पहनने से बेटियां बिगड़ जाती है। ऐसी सोच रखने वाले माता-पिता को समझने की जरुरत है। उनको खुलकर जीने का अधिकार दो, अच्छे बुरे में फर्क करना सिखाओ। बेड़ियों में बांधकर, शादी नहीं करने की इच्छा पर भी उसे सात फेरों के बंधन में बांध देना न्याय नहीं है। इस संसार में सबको अपनी मर्जी से जीने का अधिकार है, तो उसके अधिकारों पर रोक क्यों। बेटी होने की इतनी बड़ी सजा कि उसे अपने अरमानों का भी गला घोंटना पड़ता है।
बेटियां बोझ नहीं अब समझने की जरुरत
रानी शर्मा का कहना है कि अब लोगों की सोच में बहुत परिवर्तन आया है। हालांकि बहुत से लोग आज भी ऐसे हैं जो बेटी पैदा होने पर जश्न नहीं शोक बनाते हैं। लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी है जो बेटी पैदा होने पर लक्ष्मी का स्वागत करते हैं, मिठाईयां बांटते हैं, जलवा पूजते हैं ऐसे लोगों से समाज को सीख लेनी चाहिए। बहुत से लोग बेटे के चक्कर में अपनी पत्नी या बहु से बच्चे पैदा करवाते रहते हैं। ये मानसिकता बहुत बुरी है इसको बदलने की जरुरत है। बेटी बोझ नहीं है इसकी जिम्मेदारी हम सबको लेनी होगी। ये वो खुबसूरत फूल है, जिससे दो घर आंगन महकेंगे।
ये भी है जरुरी-बेटियों के लिए हैं सुकन्या योजना तो PPF से बेटों को भी बनाएं लखपति
सब लोगों की सोच को तो हम नहीं बदल सकते, लेकिन ऐसे लेख पोस्ट करके हम समाज पर थोड़ा प्रभाव तो डाल ही सकते हैं। अच्छी कोशिश है। खुश रहो। 🤗