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बहुत बार जब नारी के भविष्य के बारे में सोचती हैं तो भीतर एक शोर गूंजने लगता है। असहनीय वेदना होती है जो बहुत तकलीफ देती है। लेकिन वह असहनीय वेदना सहनीय हो जाती है जब पीछे मुड़कर देखते हैं। नारी हूं वर्तमान को देखकर भविष्य की कल्पना मात्र से डर जाना मेरे लिए स्वाभाविक है। आज असली बात में बात करते हैं क्यों नारी के भविष्य की कल्पना करके अभी से डरना जरुरी है।

पुरुष के अभिमान के शिकंजे में कैद है नारी के अरमान

नारी डरपोक नहीं होती, लेकिन जब अपने को घूटता देखती है, अपने ऊपर हो रहे अपराधों का बढ़ता देखती है, तो डर लगने लगता है। पुरुषों से मुकाबला किया है और उसमें जीत भी हासिल की है। लेकिन वजूद तो आज भी पुरुषों के हाथ में ही है। भविष्य की डोर, सपनों की उड़ान के पंख पुरुषों के अभिमान के शिकंजे में कसे हुए है। समाज की मानसिकता नारी की तरक्की पर हावी है।

नारी होने पर है गर्व

नारी होना गर्व की बात है। और हर नारी को खुद पर अभिमान करना चाहिए। नारी समाज को बनाती है। अपने शरीर को काटकर परिवार को बनाती है। लेकिन उसका अस्तित्व कहां है, उसका भविष्य क्या है सिर्फ बिस्तर पर लेट जाना उसका अस्तित्व बन गया और हर वक्त डर के साये में जीना भविष्य।

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नारी सहनशील है

इतनी पीड़ा सहन कर जब एक नारी बच्चे को जन्म दे सकती है, तो अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत है उसमें। वो मुकाबला कर सकती है। पुरुषों के हाथों से अपने जीवन की डोर छुड़वा सकती है। नारी कमजोर नहीं है, लाचार नहीं है, बेचारी नहीं है, बेबस नहीं है बस सहनशील है। नारी सहन कर सकती है सब कुछ, लेकिन अपने परिवार के खिलाफ कैसे खड़ी हो सकती है?

जिस पिता ने उसको जन्म दिया उसके खिलाफ बगावत कैसे कर दे? जिसकी कलाई पर राखी बांधती आई है उसके खिलाफ कैसे आवाज उठा दे? सात जन्मों का वादा करके जिसके साथ बंधन में बंधी है उसको कैसे अनदेखा कर दे? आंचल में समेट कर दुनिया की नजरों से बचाकर जिसको दूध पिलाया उस बेटे को कैसे बुरा कह दे?  बेटी,बहन, पत्नी, मां इन चार रिश्तों में सिमट कर रह गई नारी। अपनी पहचान बेचकर इन रिश्तों को नारी ने खरीदा है।

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इन्हीं चार रिश्तों ने नारी को आगे बढ़ने से रोका

जिन रिश्तों के लिए नारी ने अपने लिए आवाज नहीं उठाई वही रिश्ते उसे आगे बढ़ने से रोकते रहे। नारी को लगा कि ये रिश्ते उसके साथ हमेशा रहेंगे जिनके लिए वो अपना वजूद दाव पर लगा रही है। बेटी और बहन का रिश्ता पिता और भाई पर बोझ बन गया जब उसने सोलह की उम्र पार की। बड़ी होने की सोच से अनजान उसको समाज ने बड़ा बना दिया और वो बन गई।

पति के लिए मात्र वो खिलौना रही। पूरा दिन घर संभालती है, नौकरानी की तरह काम करती है, रात को पति के सामने अपने अरमानों का गला घोंटे लेटे रहना ही धर्म है ये उसे बताया गया। नारी अपना धर्म और कर्म बखूबी निभाती है। बेटे के लिए नारी जमाने के हिसाब से नहीं है। वो बुढ्ढी हो रही है तो वो आधुनिक नहीं है। बेटे का मानना है कि मां उसको समझ नहीं पा रही है और एक मां मान लेती है कि वो अपने ही बेटे को समझ नहीं पा रही क्योंकि वो नारी है, सहनशील है।

 

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